Surkh Chaand
एक सुर्ख़ चाँद गोद में लिए हुए
ईव फ़लक़ से उतरी है
तुम्हारी नज़रों में उसकी हिम्मत
किरच के जितनी पतली है
हर महीने की यही टीस है
नहीं कहेगी तुमसे वो, कि,
सह रही है तुम्हारी नस्ल के लिए
आने वाली लहराती फ़स्ल के लिए
एक चाँद गढ़ा है कोख में
वो दर्द समेटे तड़प रही है
नब्ज़ फड़कती पेट को थामे
सुर्ख़ चाँदनी सिमट रही है
पूनम से अमावस्या तक कृष्ण पक्ष है अंदर
अमावस्या से पूनम तक शुक्ल पक्ष है भीतर
शबाब पे होता है तो महीना पूरा होता है
लहू बहता है फ़लक से होकर
सुर्ख़ चाँदनी सोखती हुई जीती है औरत
और ये किरच चुभोता 'क्रेसेंट' कोख में
फिर ढलता है पंद्रह दिन तक
फिर बढ़ता है पंद्रह दिन तक
जैसे आसमाँ में सरकता है चाँद कोई
उन मुश्किल के पाँच दिनों में
जब चाँद पूरे शबाब पे हो और अगर,
कभी जो उसका हौसला कम पड़ जाए
वो चुपके से तुमसे अपनी नज़र छुपाए
तो बढ़ा देना हाथ हिम्मत का, साथ का
माना कि एक मर्द के लिए
मुश्किल है समझ पाना,
मगर तुम मत समझना,
न ही कोशिश करना उस एहसास को जीने की
बस भर देना गरम पानी की बोतल
माँ, बहन या कोई और भी हो तो
और अगर हो जीवन-संगिनी तो
ले जाना उसे गोल-गप्पे खिलाने;
रात के डेढ़ बजे,
जब उसे चॉकलेट की तलब लगे
तो मुस्कुराकर ला देना फ्रिज से,
एक जले गुड़ की ढेली;
बाहों का सहारा दे देना,
कह देना झूठे को ही, कि मैं हूँ,
अपनी हथेली की गर्माहट भी रख दोगे
उसके पेट पे अगर,
तो वो गहरी नींद सो जाएगी,
इसी भरम में कि तुम हो
सोचो, कितना अंधा आसमाँ होगा उसका
जो हर महीने चाँद की किरच छील छील कर
फेंकती रहती है कपड़े में लपेटकर कहीं दूर
ग़लती नहीं है उसकी, मर्ज़ी भी नहीं है
ख़ुदा ने उतारा है फ़लक़ से उसको
एक औरत का जिस्म देकर
ताकि तुम्हारी रातें रौशन हों
और,
तुम हो कि नज़र भी नहीं मिलाते हो
कि कहीं ग़लती से भी मुँह से
'पीरियड्स' या 'मासिक-धर्म'
जैसा कोई लफ़्ज़ न निकल जाए
साफ़ रिश्ते में ख़लल न पड़ जाए
मगर जिसके नाम में ही धर्म हो,
उससे अधर्म जैसा सुलूक क्यूँ
तुम भी तो एडम का हिस्सा हो
फिर अकेली ईव को टीस क्यूँ ।
ईव फ़लक़ से उतरी है
तुम्हारी नज़रों में उसकी हिम्मत
किरच के जितनी पतली है
हर महीने की यही टीस है
नहीं कहेगी तुमसे वो, कि,
सह रही है तुम्हारी नस्ल के लिए
आने वाली लहराती फ़स्ल के लिए
एक चाँद गढ़ा है कोख में
वो दर्द समेटे तड़प रही है
नब्ज़ फड़कती पेट को थामे
सुर्ख़ चाँदनी सिमट रही है
पूनम से अमावस्या तक कृष्ण पक्ष है अंदर
अमावस्या से पूनम तक शुक्ल पक्ष है भीतर
शबाब पे होता है तो महीना पूरा होता है
लहू बहता है फ़लक से होकर
सुर्ख़ चाँदनी सोखती हुई जीती है औरत
और ये किरच चुभोता 'क्रेसेंट' कोख में
फिर ढलता है पंद्रह दिन तक
फिर बढ़ता है पंद्रह दिन तक
जैसे आसमाँ में सरकता है चाँद कोई
उन मुश्किल के पाँच दिनों में
जब चाँद पूरे शबाब पे हो और अगर,
कभी जो उसका हौसला कम पड़ जाए
वो चुपके से तुमसे अपनी नज़र छुपाए
तो बढ़ा देना हाथ हिम्मत का, साथ का
माना कि एक मर्द के लिए
मुश्किल है समझ पाना,
मगर तुम मत समझना,
न ही कोशिश करना उस एहसास को जीने की
बस भर देना गरम पानी की बोतल
माँ, बहन या कोई और भी हो तो
और अगर हो जीवन-संगिनी तो
ले जाना उसे गोल-गप्पे खिलाने;
रात के डेढ़ बजे,
जब उसे चॉकलेट की तलब लगे
तो मुस्कुराकर ला देना फ्रिज से,
एक जले गुड़ की ढेली;
बाहों का सहारा दे देना,
कह देना झूठे को ही, कि मैं हूँ,
अपनी हथेली की गर्माहट भी रख दोगे
उसके पेट पे अगर,
तो वो गहरी नींद सो जाएगी,
इसी भरम में कि तुम हो
सोचो, कितना अंधा आसमाँ होगा उसका
जो हर महीने चाँद की किरच छील छील कर
फेंकती रहती है कपड़े में लपेटकर कहीं दूर
ग़लती नहीं है उसकी, मर्ज़ी भी नहीं है
ख़ुदा ने उतारा है फ़लक़ से उसको
एक औरत का जिस्म देकर
ताकि तुम्हारी रातें रौशन हों
और,
तुम हो कि नज़र भी नहीं मिलाते हो
कि कहीं ग़लती से भी मुँह से
'पीरियड्स' या 'मासिक-धर्म'
जैसा कोई लफ़्ज़ न निकल जाए
साफ़ रिश्ते में ख़लल न पड़ जाए
मगर जिसके नाम में ही धर्म हो,
उससे अधर्म जैसा सुलूक क्यूँ
तुम भी तो एडम का हिस्सा हो
फिर अकेली ईव को टीस क्यूँ ।
Credits
Writer(s): Prashant Bebaar
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