Naainsaaf
ज़माना नाइंसाफ़ है ।
काट खाएगा ।
सुन ।
प्रिये! मेरी जान,
मेरी आन-बान-शान,
मेरे दिल की ज़ुबान
तेरे नाम, आय-हाय!
अच्छा है बदलाव
ऐसा मैंने ही कहा था ।
था पता नहीं मगर मुझे
तू इतना बदल जाएगा ।
सुन सके तो सुन ले
मेरी बात । अभी भी
है समय । आ मेरे साथ
वरना ठोकरें तू खाएगा ।
क्या सही? ग़लत है क्या?
तू आकर मुझसे पूछ । मैं
बताऊँगा है पुण्य क्या,
न करना है जो पाप क्या ।
अगर ज़रूरत पड़े
हथेली पकड़ । मैं दूँगा साथ तेरा ।
मगर मेरे हमसफ़र,
तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
अगर ज़रूरत पड़े
हथेली पकड़ । मैं दूँगा साथ तेरा ।
मगर मेरे हमसफ़र,
तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
सुन परिहार, मैंने कभी नहीं बोला
तुझे करता मैं प्यार । तूने लाभ
अपना देखा, नहीं बूझा आर-पार ।
तेरे अश्कों में दिखता है झूठा ऐतबार ।
कैसे किया मेरी इज़्ज़त पे वार?
न माँ की है इज़्ज़त,
न ही बहन का सम्मान ।
भाई-बाप को क्यों छोड़ा?
उन्हें भी कर दे बदनाम ।
दिल में है जो, तेरी नस तक में है ।
असली तो खोट तेरे मस्तक में है ।
खाने को दिल करता, क्या दोष देता भूख को?
अच्छा न लगे कोई तो गाली सीधा कोख को ।
तूने बोला,
"परम तू **** है ।
महासागर के पत्थर-सा **** है ।
फटे काग़ज़ के टुकड़े-सा **** है ।
जलते परवाने की तरह **** है, हाँ!" ।
तुझे अपना समझता था, पागल था मैं ।
तुझे बाँहों में भरता था, पागल था मैं ।
हाँ पागल था मैं, जो तेरे पीछे-पीछे आता,
कितनी तकलीफ़ें सहता था, पागल था मैं ।
मैं तो समझता था पागल मैं था,
पागल मगर यह ज़माना ही था ।
मैत्री के मुझको वहम में क्यों रखा
जब ऐ ज़ालिम! मुझको तड़पाना ही था?
पढ़ता हूँ मैं, और तू अय्याशी करता है ।
ज़िंदगी में तेरी कोई कमी नहीं है,
कोई ग़म ही नहीं है किसी बात का ।
अरे! काम कैसे कर लूँ अपनी मनचाही औक़ात का?
ख़ैरात का नहीं, अपनी मेहनत का खाता हूँ ।
पढ़ता हूँ स्वयं, फिर तुझको पढ़ाता हूँ ।
मोहताज है तू नक़्ल का, मगर फिर भी
कक्षा में अव्वल मैं ही तो आता हूँ ।
नापाक दुनिया है, सहना तू सीख ले ।
बेहतर है कि इसमें रहना तू सीख ले ।
समय तो लगेगा इसमें, लेकिन अपने
दिल की बात दिल खोलकर कहना तू सीख ले ।
दैत्यों की बस्ती में रहना है दिन-रात यहाँ ।
अकड़ मेरे हमसफ़र, तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
दैत्यों की बस्ती में रहना है दिन-रात यहाँ ।
अकड़ मेरे हमसफ़र, तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
मैं जानता हूँ तुम सब
मेरे पीठ-पीछे हँसते हो ।
आस्तीन के साँप हो,
तुम शहद पीके डसते हो ।
नहीं किया कभी भी
मेरी वफ़ा का सम्मान । थी
ख़ता भी क्या मेरी जो
तेरा भला चाहता था ।
कह दिया जो कहना था
और कर दिया जो कर गया ।
मैं अब रहा न वह जो
तेरे पीछे भागता था,
तुझसे भीख माँगता था,
तेरे तलवे चाटता था ।
कैसा बेवफ़ा तू
उल्टा मुझको काटता था ।
मुझसे करता था उम्मीद
तेरी मानूँ सारी बातें,
फिर भी मेरी एक बात
भी कभी न मानता था ।
तू होता मुझसे था ख़फ़ा,
मैं माफ़ी माँगता था ।
मैं मुँह फुला लूँ थोड़ा भी
तू जूते मारता था ।
रोज़, हफ़्ते, मास,
साल बीतते गए ।
थोड़ा-सा नासमझ, किंतु
मैं भी सब जानता था ।
सोच कभी क्यों, हुई है
कैसे, करी गई शुरुआत कहाँ ।
संभल मेरे हमसफ़र,
तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
सोच कभी क्यों, हुई है
कैसे, करी गई शुरुआत कहाँ ।
संभल मेरे हमसफ़र,
तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
काट खाएगा ।
सुन ।
प्रिये! मेरी जान,
मेरी आन-बान-शान,
मेरे दिल की ज़ुबान
तेरे नाम, आय-हाय!
अच्छा है बदलाव
ऐसा मैंने ही कहा था ।
था पता नहीं मगर मुझे
तू इतना बदल जाएगा ।
सुन सके तो सुन ले
मेरी बात । अभी भी
है समय । आ मेरे साथ
वरना ठोकरें तू खाएगा ।
क्या सही? ग़लत है क्या?
तू आकर मुझसे पूछ । मैं
बताऊँगा है पुण्य क्या,
न करना है जो पाप क्या ।
अगर ज़रूरत पड़े
हथेली पकड़ । मैं दूँगा साथ तेरा ।
मगर मेरे हमसफ़र,
तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
अगर ज़रूरत पड़े
हथेली पकड़ । मैं दूँगा साथ तेरा ।
मगर मेरे हमसफ़र,
तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
सुन परिहार, मैंने कभी नहीं बोला
तुझे करता मैं प्यार । तूने लाभ
अपना देखा, नहीं बूझा आर-पार ।
तेरे अश्कों में दिखता है झूठा ऐतबार ।
कैसे किया मेरी इज़्ज़त पे वार?
न माँ की है इज़्ज़त,
न ही बहन का सम्मान ।
भाई-बाप को क्यों छोड़ा?
उन्हें भी कर दे बदनाम ।
दिल में है जो, तेरी नस तक में है ।
असली तो खोट तेरे मस्तक में है ।
खाने को दिल करता, क्या दोष देता भूख को?
अच्छा न लगे कोई तो गाली सीधा कोख को ।
तूने बोला,
"परम तू **** है ।
महासागर के पत्थर-सा **** है ।
फटे काग़ज़ के टुकड़े-सा **** है ।
जलते परवाने की तरह **** है, हाँ!" ।
तुझे अपना समझता था, पागल था मैं ।
तुझे बाँहों में भरता था, पागल था मैं ।
हाँ पागल था मैं, जो तेरे पीछे-पीछे आता,
कितनी तकलीफ़ें सहता था, पागल था मैं ।
मैं तो समझता था पागल मैं था,
पागल मगर यह ज़माना ही था ।
मैत्री के मुझको वहम में क्यों रखा
जब ऐ ज़ालिम! मुझको तड़पाना ही था?
पढ़ता हूँ मैं, और तू अय्याशी करता है ।
ज़िंदगी में तेरी कोई कमी नहीं है,
कोई ग़म ही नहीं है किसी बात का ।
अरे! काम कैसे कर लूँ अपनी मनचाही औक़ात का?
ख़ैरात का नहीं, अपनी मेहनत का खाता हूँ ।
पढ़ता हूँ स्वयं, फिर तुझको पढ़ाता हूँ ।
मोहताज है तू नक़्ल का, मगर फिर भी
कक्षा में अव्वल मैं ही तो आता हूँ ।
नापाक दुनिया है, सहना तू सीख ले ।
बेहतर है कि इसमें रहना तू सीख ले ।
समय तो लगेगा इसमें, लेकिन अपने
दिल की बात दिल खोलकर कहना तू सीख ले ।
दैत्यों की बस्ती में रहना है दिन-रात यहाँ ।
अकड़ मेरे हमसफ़र, तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
दैत्यों की बस्ती में रहना है दिन-रात यहाँ ।
अकड़ मेरे हमसफ़र, तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
मैं जानता हूँ तुम सब
मेरे पीठ-पीछे हँसते हो ।
आस्तीन के साँप हो,
तुम शहद पीके डसते हो ।
नहीं किया कभी भी
मेरी वफ़ा का सम्मान । थी
ख़ता भी क्या मेरी जो
तेरा भला चाहता था ।
कह दिया जो कहना था
और कर दिया जो कर गया ।
मैं अब रहा न वह जो
तेरे पीछे भागता था,
तुझसे भीख माँगता था,
तेरे तलवे चाटता था ।
कैसा बेवफ़ा तू
उल्टा मुझको काटता था ।
मुझसे करता था उम्मीद
तेरी मानूँ सारी बातें,
फिर भी मेरी एक बात
भी कभी न मानता था ।
तू होता मुझसे था ख़फ़ा,
मैं माफ़ी माँगता था ।
मैं मुँह फुला लूँ थोड़ा भी
तू जूते मारता था ।
रोज़, हफ़्ते, मास,
साल बीतते गए ।
थोड़ा-सा नासमझ, किंतु
मैं भी सब जानता था ।
सोच कभी क्यों, हुई है
कैसे, करी गई शुरुआत कहाँ ।
संभल मेरे हमसफ़र,
तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
सोच कभी क्यों, हुई है
कैसे, करी गई शुरुआत कहाँ ।
संभल मेरे हमसफ़र,
तू मुट्ठी जकड़ । है नाइंसाफ़ जहाँ ।
Credits
Writer(s): Param Siddharth
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