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बड़ी मुद्दते हुई मदहोश हूँ मैं
भरी महफ़िल में भी खामोश हूँ मैं।

बाहर निकला तो था खुशी ढूंढने को,
पर इक शहर-ए-गम में मौजूद हूँ मैं।

वक़्त दिया मैंने, वक़्त को वक़्त बदलने के लिए,
पर वक़्त से जरा कमजोर हूँ मैं।

बुलाती है राहें नई रोज़ मुझे इशारों में,
पर दर्द पुरानी से ही शायद खुश हूँ मैं।

फिर गुज़रे उसके शहर से आज अरसों बाद,
अब भी उन गलियों का मामूल हूँ मैं।

मिला खत उसका तो महसूस हुआ,
उसकी यादो मे शायद महफूज़ हूँ मैं।

की कोशिश की काश में भी बेवफा हो जाऊँ,
पर अपनी आदत से मजबूर हूँ मैं।



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