Durlabhopanishad

गुरुर्वै सदां पूर्व मदैव तुल्यं
प्राणो बदार्यै वहितं सदैव।
चिन्त्यं विचिन्त्यं भव मेक रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥

गुरुवै प्रपन्नार्तबैवां वदैवं
अत्योत्वताम्बै प्रहितं सदैव।
देवोत्वमेव भवतं सहि चिन्त्य रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥

सतं वै सदान्नं देवालयोवै
प्रातोर्भवेवै सहितं न देर्वै।
पूर्तंपरांपूर्ण मदैव रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥

अदोर्यं वदेवं चिन्त्यं सहेतं
पुर्वोत्त रुपं चरणं सदेयं।
आत्मो सतां पूर्व मदैव चिन्त्यं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥

चैतन्य रुपं अपरं सदैव
प्राणोदवेवं चरणं सदैव।
सतिर्थो सदेवं भवतं वदैव
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥

चैतन्य रुपं भवतं सदैव,
ज्ञानोर्थबाथं सहितं तदेवं।
देवोत्तथां पूर्व मदैव शक्तीं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥

न तातो वतान्यै न मातं न भ्रातं
न देहो वदान्यै पत्निर्वतेवं।
न जानामी वित्तं न व्रिति न रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥

त्वदियं तदेवं भवत्वं भवेयं,
चिन्त्यंविचिन्त्यं सहितं सदैव।
आर्तोनवातं भवमेक नित्यं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥

अवतं सदेवं भवतं सदेवं,
ज्ञानं सदेवं चिन्त्यं सदेवं।
पूर्णं सदेवं अवतं सदेवं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥

गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं॥



Credits
Writer(s): Dr Narayan Shrimali
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