Epic Vishnu Darshan
मैंने अवतार लिया जब धरा भी
धर्म विरुद्ध हो जाता था
मैंने अवतार लिया जब मनुष्य
पुण्य विमुख हो जाता था
मैंने सब तार दिया वो साधु संत
जो तप पे सटे हुए
उन सब पर वार किया जो जीवन धर्म
के पथ से हटे हुए
अब जब संसार के सागर में
सुख ढूंढ रहे कुछ दबे यही
कुछ हुए विफल जो मारे गए
कुछ हुए विफल जो रुके नहीं
कुछ देख रहे क्या हुआ चक्र में
हुआ वही जो रचा गया
कुछ खोज रहे क्या मिला अंत
पर अंत सभी को मिला नहीं
वो वेद मुझी से निकले हैं
जो गाए मुझी को शब्दों में
वो वेद मुझी को भजते हैं
हर कल्प युगों के चक्रों में
उन वेद का सार भी मैं ही हूं
जीवन आहार भी मैं ही हूं
भौतिक संसार भी मैं ही हूं
तू तर्क क्या ढूंढता अर्थों में
यह स्पष्ट वत्स मुझ में ही यह
जीवन का बीज पनपता है
यह स्पष्ट वत्स मुझ में ही वो
चूहा अग्नि का जलता है
यह स्पष्ट मुझी में पुण्य भोग
और पाप कर्म भी पलता है
फल काल मृत्यु संग अंत सभी का
मेरे समक्ष ही खिलता है
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
हो
भक्त जनों के संकट
दास जनों के संकट
क्षण में दूर करे
जय जगदीश हरे
सतयुग का संघर्ष हुआ
जब वेद विद्य का खंड हुआ
हैग्रीव छुपा था मृत्युलोक में
युगों का अंत अखंड हुआ
मैं मत्स्य रूप सर मुकुट धरे
कर शंख चक्र और पद्म मैंने
अवतार लिया जब भूमि सजल
सम्राट मनु भी धन्य हुए
वो मैं ही था जब कुर्म बन के
पर्वत के भार को सादा था
वो मैं ही था जब मोहिनी ने
अमृत देवों में बांटा था
मोहलिया सभी को क्षण में मैंने
और असुरों का सर काटा था
मेरे समक्ष सब देव आए
जब बचाना कोई चारा था
हिरण्याक्ष ने तप के बल पे
ब्रह्मा से वरदान लिए
जब धरा बहा दी जल में उसने
देव आदि पर वार किए
वो मैं ही था जो सूकर बन के
धरा नाम से आया था
हिरण्याक्ष को तार मैंने
दांतों से धरा को लाया था
मुख मेरा चारों ओर सखा
तू जहां भी देखे मैं ही हूं
मैं वायु बन के साथ तेरे
और जल का स्वाद भी मैं ही हूं
मैं मिट्टी की सुगंध सखा
धरती की हर एक गंध में हूं
मैं विधि वेद सब यज्ञ में ही
विद्या के हर एक छंद में हूं
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
हो
भक्त जनों के संकट
दास जनों के संकट
क्षण में दूर करे
जय जगदीश हरे
उग्रम में और वीरम में
महाविष्णु अवतार में ही
ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्
चारों ओर प्रकाश में ही
नृसिंहं भीषणं भद्रं
भय और हित का स्रोत में ही
मृत्यु का मैं स्वामी सखा
मृत्यु का सत्य रूप में ही
मैं एक पग में धरती को नाप
और दूसरे में ब्रह्मांड सदा
जब तीसरे को ना स्थान मिला
तो देख रूप चरणों में गिरा
वामन के रूप में मैं ही था
जो देख मुझे ना जान सका
राजा बली का मैं मान तोड़
गिर गया वहीं सर चरण रखा
वो मैं ही था इक्कीस बार
धरती को मुक्त कराया था
मैं हाथ में फरसा लेके चला
ब्रह्मांड विजय दिलाया था
वो मैं ही था जो पहचाना क्षत्रियकाल
के नाम से ही भयभीत मेरे सब नाम से थे
भयभीत धनुष टंकार से ही
हां मैं ही हूं वो सास सखा
जिसके द्वारा जीवन तेरा
मेरे द्वारा ही प्राण सखा
चाहूं छीनू जीवन तेरा
अब देख मुझी को कण कण में
उस समय चक्र के क्षण क्षण में
मैं हर कहीं पे विख्यात सखा
और मैं ही पालन हार तेरा
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
हो
भक्त जनों के संकट
दास जनों के संकट
क्षण में दूर करे
जय जगदीश हरे
मैं सहज सुशीला धर्मवीर
दशरथ का नंदन राम भी हूं
मैं सुंदर सा मुस्काने वाला
सीता का मैं प्राण भी हूं
उस कामवान और दुष्ट असुर
उस रावण का मैं काल भी हूं
भक्ति रस में जीवन बिताते
उन संतों का कल्याण भी हूं
मैं हल चला के योद्धा कहाया
मैं हलधार बलराम भी हूं
मैं मुरली संग उधम मचाया
मैं गिरधर सुंदर श्याम भी हूं
मैं कली काल के रूप में
दुर्योधन आदि का काल भी हूं
मैं अर्जुन के कानों में पढ़ता
गीता का गुणगान भी हूं
मैं मुकुट धरे तलवार लिए
कलकी के रूप में आऊंगा
मैं ही आऊंगा स्वयं सखा
जब धर्म को हटते पाऊंगा
मैं कली काल का अंत करू
ये युग भी जान ले मेरा है
मैं असुरों का संघार करूं
मेरे ही पास सवेरा है
जब युगों युगों में हानि हो
और धर्म भी हो जब चूर सखा
जब दुख की वर्षा करने पर
नीति भी हो मजबूर सखा
मैं तब तब स्वयं ही आया हूं
भक्तो का तारण करने को
आऊंगा मैं हर बार सखा
सब दुख निवारण करने को
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
हो
भक्त जनों के संकट
दास जनों के संकट
क्षण में दूर करे
जय जगदीश हरे
हम ऐसे हरि के दास बने
जिनकी लीला हर बार कहू
जो अनंत शेष पे है स्थित
उनकाअनंत गुणगान कहूं
मैं दास सिद्धार्थ पड़ा चरणों
उनके अनंत अवतार कहूं
मैं अंत मेंकरता दंडवत
पर बारंबार प्रणाम कहू
धर्म विरुद्ध हो जाता था
मैंने अवतार लिया जब मनुष्य
पुण्य विमुख हो जाता था
मैंने सब तार दिया वो साधु संत
जो तप पे सटे हुए
उन सब पर वार किया जो जीवन धर्म
के पथ से हटे हुए
अब जब संसार के सागर में
सुख ढूंढ रहे कुछ दबे यही
कुछ हुए विफल जो मारे गए
कुछ हुए विफल जो रुके नहीं
कुछ देख रहे क्या हुआ चक्र में
हुआ वही जो रचा गया
कुछ खोज रहे क्या मिला अंत
पर अंत सभी को मिला नहीं
वो वेद मुझी से निकले हैं
जो गाए मुझी को शब्दों में
वो वेद मुझी को भजते हैं
हर कल्प युगों के चक्रों में
उन वेद का सार भी मैं ही हूं
जीवन आहार भी मैं ही हूं
भौतिक संसार भी मैं ही हूं
तू तर्क क्या ढूंढता अर्थों में
यह स्पष्ट वत्स मुझ में ही यह
जीवन का बीज पनपता है
यह स्पष्ट वत्स मुझ में ही वो
चूहा अग्नि का जलता है
यह स्पष्ट मुझी में पुण्य भोग
और पाप कर्म भी पलता है
फल काल मृत्यु संग अंत सभी का
मेरे समक्ष ही खिलता है
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
हो
भक्त जनों के संकट
दास जनों के संकट
क्षण में दूर करे
जय जगदीश हरे
सतयुग का संघर्ष हुआ
जब वेद विद्य का खंड हुआ
हैग्रीव छुपा था मृत्युलोक में
युगों का अंत अखंड हुआ
मैं मत्स्य रूप सर मुकुट धरे
कर शंख चक्र और पद्म मैंने
अवतार लिया जब भूमि सजल
सम्राट मनु भी धन्य हुए
वो मैं ही था जब कुर्म बन के
पर्वत के भार को सादा था
वो मैं ही था जब मोहिनी ने
अमृत देवों में बांटा था
मोहलिया सभी को क्षण में मैंने
और असुरों का सर काटा था
मेरे समक्ष सब देव आए
जब बचाना कोई चारा था
हिरण्याक्ष ने तप के बल पे
ब्रह्मा से वरदान लिए
जब धरा बहा दी जल में उसने
देव आदि पर वार किए
वो मैं ही था जो सूकर बन के
धरा नाम से आया था
हिरण्याक्ष को तार मैंने
दांतों से धरा को लाया था
मुख मेरा चारों ओर सखा
तू जहां भी देखे मैं ही हूं
मैं वायु बन के साथ तेरे
और जल का स्वाद भी मैं ही हूं
मैं मिट्टी की सुगंध सखा
धरती की हर एक गंध में हूं
मैं विधि वेद सब यज्ञ में ही
विद्या के हर एक छंद में हूं
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
हो
भक्त जनों के संकट
दास जनों के संकट
क्षण में दूर करे
जय जगदीश हरे
उग्रम में और वीरम में
महाविष्णु अवतार में ही
ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्
चारों ओर प्रकाश में ही
नृसिंहं भीषणं भद्रं
भय और हित का स्रोत में ही
मृत्यु का मैं स्वामी सखा
मृत्यु का सत्य रूप में ही
मैं एक पग में धरती को नाप
और दूसरे में ब्रह्मांड सदा
जब तीसरे को ना स्थान मिला
तो देख रूप चरणों में गिरा
वामन के रूप में मैं ही था
जो देख मुझे ना जान सका
राजा बली का मैं मान तोड़
गिर गया वहीं सर चरण रखा
वो मैं ही था इक्कीस बार
धरती को मुक्त कराया था
मैं हाथ में फरसा लेके चला
ब्रह्मांड विजय दिलाया था
वो मैं ही था जो पहचाना क्षत्रियकाल
के नाम से ही भयभीत मेरे सब नाम से थे
भयभीत धनुष टंकार से ही
हां मैं ही हूं वो सास सखा
जिसके द्वारा जीवन तेरा
मेरे द्वारा ही प्राण सखा
चाहूं छीनू जीवन तेरा
अब देख मुझी को कण कण में
उस समय चक्र के क्षण क्षण में
मैं हर कहीं पे विख्यात सखा
और मैं ही पालन हार तेरा
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
हो
भक्त जनों के संकट
दास जनों के संकट
क्षण में दूर करे
जय जगदीश हरे
मैं सहज सुशीला धर्मवीर
दशरथ का नंदन राम भी हूं
मैं सुंदर सा मुस्काने वाला
सीता का मैं प्राण भी हूं
उस कामवान और दुष्ट असुर
उस रावण का मैं काल भी हूं
भक्ति रस में जीवन बिताते
उन संतों का कल्याण भी हूं
मैं हल चला के योद्धा कहाया
मैं हलधार बलराम भी हूं
मैं मुरली संग उधम मचाया
मैं गिरधर सुंदर श्याम भी हूं
मैं कली काल के रूप में
दुर्योधन आदि का काल भी हूं
मैं अर्जुन के कानों में पढ़ता
गीता का गुणगान भी हूं
मैं मुकुट धरे तलवार लिए
कलकी के रूप में आऊंगा
मैं ही आऊंगा स्वयं सखा
जब धर्म को हटते पाऊंगा
मैं कली काल का अंत करू
ये युग भी जान ले मेरा है
मैं असुरों का संघार करूं
मेरे ही पास सवेरा है
जब युगों युगों में हानि हो
और धर्म भी हो जब चूर सखा
जब दुख की वर्षा करने पर
नीति भी हो मजबूर सखा
मैं तब तब स्वयं ही आया हूं
भक्तो का तारण करने को
आऊंगा मैं हर बार सखा
सब दुख निवारण करने को
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे
हो
भक्त जनों के संकट
दास जनों के संकट
क्षण में दूर करे
जय जगदीश हरे
हम ऐसे हरि के दास बने
जिनकी लीला हर बार कहू
जो अनंत शेष पे है स्थित
उनकाअनंत गुणगान कहूं
मैं दास सिद्धार्थ पड़ा चरणों
उनके अनंत अवतार कहूं
मैं अंत मेंकरता दंडवत
पर बारंबार प्रणाम कहू
Credits
Writer(s): Siddharth Sharma, Traditional
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