Saatwa Adhyay

सातवां अध्याय

श्रीभगवान् ने कहा
मुझमें लगा कर चित्त मेरे आसरे कर योग भी
जैसा असंशय पूर्ण जानेगा मुझे वह सुन सभी
विज्ञान- युत वह ज्ञान कहता हूँ सभी विस्तार में
जो जान कर कुछ जानना रहता नहीं संसार में
कोई सहस्रों मानवों में सिद्धि करना ठानता
उन यत्नशीलों में मुझे कोई यथावत् जानता

पृथ्वी, पवन, जल, तेज, नभ, मन, अहंकार व बुद्धि भी
इन आठ भागों में विभाजित है प्रकृति मेरी सभी
हे पार्थ! वह ' अपरा' प्रकृति का जान लो विस्तार है
फिर है ' परा' यह जीव जो संसार का आधार है
उत्पन्न दोनों से इन्हीं से जीव हैं जग के सभी
मैं मूल सब संसार का हूँ और मैं ही अन्त भी

मुझसे परे कुछ भी नहीं संसार का विस्तार है
जिस भांति माला में मणी, मुझमें गुथा संसार है
आकाश में ध्वनि, नीर में रस, वेद में ओंकार हूँ
पौरुष पुरुष में, चाँद सूरज में प्रभामय सार हूँ
शुभ गन्ध वसुधा में सदा मैं प्राणियों में प्राण हूँ
मैं अग्नि में हूँ तेज, तपियों में तपस्या ज्ञान हूँ

हे पार्थ! जीवों का सनातन बीज हूँ, आधार हूँ
तेजस्वियों में तेज, बुध में बुद्धि का भण्डार हूँ
हे पार्थ! मैं कामादि राग- विहीन बल बलवान् का
मैं काम भी हूँ धर्म के अविरुद्ध विद्यावान् का
सत और रज, तम भाव मुझसे ही हुए हैं ये सभी
मुझमें सभी ये किन्तु मैं उनमें नहीं रहता कभी

इन त्रिगुण भावों में सभी भूला हुआ संसार है
जाने न अव्यय- तत्त्व मेरा जो गुणों से पार है
यह त्रिगुणदैवी घोर माया अगम और अपार है
आता शरण मेरी वही जाता सहज में पार है
पापी, नराधम, ज्ञान माया ने हरा जिनका सभी
वे मूढ़ आसुर बुद्धि- वश मुझको नहीं भजते कभी

अर्जुन! मुझे भजता सुकृति- समुदाय चार प्रकार का
जिज्ञासु, ज्ञानीजन, दुखी- मन, अर्थ- प्रिय संसार का
नित- युक्त ज्ञानी ष्रेष्ठ, जो मुझमें अनन्यासक्त है
मैं क्योंकि ज्ञानी को परम प्रिय, प्रिय मुझे वह भक्त है
वे सब उदार, परन्तु मेरा प्राण ज्ञानी भक्त है
वह युक्त जन, सर्वोच्च- गति मुझमें सदा अनुरक्त है

जन्मान्तरों में जानकर, ' सब वासुदेव यथार्थ है'
ज्ञानी मुझे भजता, सुदुर्लभ वह महात्मा पार्थ है
निज प्रकृति- प्रेरित, कामना द्वारा हुए हत ज्ञान से
कर नियम भजते विविध विध नर अन्य देव विधान से
जो जो कि जिस जिस रूप की पूजा करे नर नित्य ही
उस भक्त की करता उसी में, मैं अचल श्रद्धा वही

उस देवता को पूजता फिर वह, वही श्रद्धा लिये
निज इष्ट- फल पाता सकल, निर्माण जो मैने किये
ये मन्दमति नर किन्तु पाते, अन्तवत फल सर्वदा
सुर- भक्त सुर में, भक्त मेरे, आ मिलें मुझमें सदा
अव्यक्त मुझको व्यक्त, मानव मूढ़ लेते मान हैं
अविनाशि अनुपम भाव मेरा वे न पाते जान हैं

निज योगमाया से ढका सबको न मैं, दिखता कहीं
अव्यय अजन्मा मैं, मुझे पर मूढ़ नर जानें नहीं
होंगे, हुए हैं, जीव जो मुझको सभी का ज्ञान है
इनको किसी को किन्तु कुछ मेरी नहीं पहिचान है
उत्पन्न इच्छा द्वेष से जो द्वन्द्व जग में व्याप्त हैं
उनसे परंतप! सर्व प्राणी मोह करते प्राप्त हैं

पर पुण्यवान् मनुष्य जिनके छुट गये सब पाप हैं
दृढ़ द्वन्द्व- मोह- विहीन हो भजते मुझे वे आप हैं
करते ममाश्रित जो जरा- मृति- मोक्ष के हित साधना
वे जानते हैं ब्रह्म, सब अध्यात्म, कर्म महामना
अधि- भूत, दैव व यज्ञ- युत, जो विज्ञ मुझको जानते
वे युक्त- चित मरते समय में भी मुझे पहिचानते

सातवां अध्याय समाप्त हुआ



Credits
Writer(s): Pandit Shri Dinanath Bhargava
Lyrics powered by www.musixmatch.com

Link