Nauwa Adhyay

नौवां अध्याय

श्रीभगवान् ने कहा
अब दोषदर्शी तू नहीं यों, गुप्त, सह- विज्ञान के
वह ज्ञान कहता हूँ, अशुभ से मुक्त हो जन जान के
यह राजविद्या, परम- गुप्त, पवित्र, उत्तम- ज्ञान है
प्रत्यक्ष फलप्रद, धर्मयुत, अव्यय, सरल, सुख- खान है
श्रद्धा न जिनको पार्थ है इस धर्म के शुभ सार में
मुझको न पाकर लौट आते मृत्युमय संसार में

अव्यक्त अपने रूप से जग व्याप्त मैं करता सभी
मुझमें सभी प्राणी समझ पर मैं नहीं उनमें कभी
मुझमें नहीं हैं भूत देखो योग- शक्ति- प्रभाव है
उत्पन्न करता पालता उनसे न किन्तु लगाव है
सब ओर रहती वायु है आकाश में जिस भाँति से
मुझमें सदा ही हैं समझ सब भूतगण इस भाँति से

कल्पान्त में मेरी प्रकृति में जीव लय होते सभी
जब कल्प का आरम्भ हो, मैं फिर उन्हें रचता तभी
अपनी प्रकृति आधीन कर, इस भूतगण को मैं सदा
उत्पन्न बारम्बार करता, जो प्रकृतिवश सर्वदा
बँधता नहीं हूँ पार्थ! मैं इस कर्म- बन्धन में कभी
रहकर उदासी- सा सदा आसक्ति तज करता सभी

अधिकार से मेरे प्रकृति रचती चराचर विश्व है
इस हेतु फिरकी की तरह फिरता बराबर विश्व है
मैं प्राणियों का ईश हूँ, इस भाव को नहिं जान के
करते अवज्ञा जड़, मुझे नर- देहधारी मान के
चित्त भ्रष्ट, आशा ज्ञान कर्म निरर्थ सारे ही किये
वे आसुरी अति राक्षसीय स्वभाव मोहात्मक लिये

दैवी प्रकृति के आसरे बुध- जन भजन मेरा करें
भूतादि अव्यय जान पार्थ! अनन्य मन से मन धरें
नित यत्न से कीर्तन करें दृढ़ व्रत सदा धरते हुए
करते भजन हैं भक्ति से मम वन्दना करते हुए
कुछ भेद और अभेद से कुछ ज्ञान- यज्ञ विधान से
पूजन करें मेरा कहीं कुछ सर्वतोमुख ध्यान से

मैं यज्ञ श्रौतस्मार्त हूँ एवं स्वधा आधार हूँ
घृत और औषधि, अग्नि, आहुति, मन्त्र का मैं सार हूँ
जग का पिता माता पितामह विश्व- पोषण- हार हूँ
ऋक् साम यजु श्रुति जानने के योग्य शुचि ओंकार हूँ
पोषक प्रलय उत्पत्ति गति आधार मित्र निधान हूँ
साक्षी शरण प्रभु बीज अव्यय में निवासस्थान हूँ

मैं ताप देता, रोकता जल, वृष्टि मैं करता कभी
मैं ही अमृत भी मृत्यु भी मैं सत् असत् अर्जुन सभी
जो सोमपा त्रैविद्य- जन निष्पाप अपने को किये
कर यज्ञ मुझको पूजते हैं स्वर्ग- इच्छा के लिये
वे प्राप्त करके पुण्य लोक सुरेन्द्र का, सुरवर्ग में
फिर दिव्य देवों के अनोखे भोग भोगें स्वर्ग में

वे भोग कर सुख- भोग को, उस स्वर्गलोक विशाल में
फिर पुण्य बीते आ फंसे इस लोक के दुख- जाल में
यों तीन वेदों में कहे जो कर्म- फल में लीन हैं
वे कामना- प्रियजन सदा आवागमन आधीन हैं
जो जन मुझे भजते सदैव अनन्य- भावापन्न हो
उनका स्वयं मैं ही चलाता योग- क्षेम प्रसन्न हो

जो अन्य देवों को भजें नर नित्य श्रद्धा- लीन हो
वे भी मुझे ही पूजते हैं पार्थ! पर विधि- हीन हो
सब यज्ञ- भोक्ता विश्व- स्वामी पार्थ मैं ही हूँ सभी
पर वे न मुझको जानते हैं तत्त्व से गिरते तभी
सुरभक्त सुर को पितृ को पाते पितर- अनुरक्त हैं
जो भूत पूजें भूत को, पाते मुझे मम भक्त हैं

अर्पण करे जो फूल फल जल पत्र मुझको भक्ति से
लेता प्रयत- चित भक्त की वह भेंट मैं अनुरक्ति से
कौन्तेय! जो कुछ भी करो तप यज्ञ आहुति दान भी
नित खानपानादिक समर्पण तुम करो मेरे सभी
हे पार्थ! यों शुभ- अशुभ- फल- प्रद कर्म- बन्धन- मुक्त हो
मुझमें मिलेगा मुक्त हो, संन्यास- योग- नियुक्त हो

द्वैषी हितैषी है न कोई, विश्व मुझमें एकसा
पर भक्त मुझमें बस रहा, मैं भक्त के मन में बसा
यदि दुष्ट भी भजता अनन्य सुभक्ति को मन में लिये
है ठीक निश्चयवान् उसको साधु कहना चाहिये
वह धर्म- युत हो शीघ्र शाश्वत शान्ति पाता है यहीं
यह सत्य समझो भक्त मेरा नष्ट होता है नहीं

पाते परम- पद पार्थ! पाकर आसरा मेरा सभी
जो अड़ रहे हैं पाप- गति में, वैश्य वनिता शूद्र भी
फिर राज- ऋषि पुण्यात्म ब्राह्मण भक्त की क्या बात है
मेरा भजन कर, तू दुखद नश्वर जगत् में तात है
मुझमें लगा मन भक्त बन, कर यजन पूजन वन्दना
मुझमें मिलेगा मत्परायण युक्त आत्मा को बना

नवां अध्याय समाप्त हुआ



Credits
Writer(s): Pandit Shri Dinanath Bhargava
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