Terahwa Adhyay

तेरहवां अध्याय

श्री भगवान् ने कहा
कौन्तेय, यह तन क्षेत्र है ज्ञानी बताते हैं यही
जो जानता इस क्षेत्र को क्षेत्रज्ञ कहलाता वही
हे पार्थ, क्षेत्रों में मुझे क्षेत्रज्ञ जान महान तू
क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्र का सब ज्ञान मेरा जान तू
वह क्षेत्र जो, जैसा, जहाँ से, जिन विकारों-युत, सभी
संक्षेप में सुन, जिस प्रभाव समेत वह क्षेत्रज्ञ भी

बहु भाँति ऋषियों और छन्दों से अनेक प्रकार से
गाया पदों में ब्रह्मसूत्रों के सहेतु विचार से
मन बुद्धि एवं महाभूत प्रकृति अहंकृत भाव भी
पाँचों विषय सब इन्द्रियों के और इन्द्रियगण सभी
सुख-दुःख इच्छा द्वेष धृत्ति संघात एवं चेतना
संक्षेप में यह क्षेत्र है समुदाय जो इनका बना

अभिमान दम्भ अभाव, आर्जव, शौच, हिंसाहीनता
थिरता, क्षमा, निग्रह तथा आचार्य-सेवा दीनता
इन्द्रिय-विषय-वैराग्य एवं मद सदैव निवारना
जीवन, जरा, दुख, रोग मृत्यु सदोष नित्य विचारना
नहिं लिप्त नारी पुत्र में, सब त्यागना फल-वासना
नित शुभ अशुभ की प्राप्ति में भी एकसा रहना बना

मुझमें अनन्य विचार से व्यभिचार विरहित भक्ति हो
एकान्त का सेवन, न जन समुदाय में आसक्ति हो
अध्यात्मज्ञान व तत्त्वज्ञान विचार, यह सब ज्ञान है
विपरीत इनके और जो कुछ है सभी अज्ञान है
अब वह बताता ज्ञेय जिसके ज्ञान से निस्तार है
नहिं सत् असत्, परब्रह्म तो अनादि और अपार है

सर्वत्र उसके पाणि पद सिर नेत्र मुख सब ओर ही
सब ओर उसके कान हैं, सर्वत्र फैला है वही
इन्द्रिय-गुणों का भास उसमें किन्तु इन्द्रिय-हीन है
हो अलग जग-पालक, निर्गुण होकर गुणों में लीन है
भीतर व बाहर प्राणियों में दूर भी है पास भी
वह चर अचर अति सूक्ष्म है जाना नहीं जाता कभी

अविभक्त होकर प्राणियों में वह विभक्त सदैव है
वह ज्ञेय पालक और नाशक जन्मदाता देव है
वह ज्योतियों की ज्योति है, तम से परे है, ज्ञान है
सब में बसा है, ज्ञेय है, वह ज्ञानगम्य महान् है
यह क्षेत्र, ज्ञान, महान् ज्ञेय, कहा गया संक्षेप में
हे पार्थ, इसको जान मेरा भक्त मुझमें आ बसे

यह प्रकृति एवं पुरुष दोनों ही अनादि विचार हैं
पैदा प्रकृति से ही समझ, गुण तीन और विकार हैं
है कार्य एवं करण की उत्पत्ति कारण प्रकृति ही
इस जीव को कारण कहा, सुख-दुःख भोग निमित्त्त ही
रहकर प्रकृति में नित पुरुष, करता प्रकृति-गुण भोग है
अच्छी बुरी सब योनियाँ, देता यही गुण-योग है

द्रष्टा व अनुमन्ता सदा, भर्ता प्रभोक्ता शिव महा
इस देह में परमात्मा, उस पर-पुरुष को है कहा
ऐसे पुरुष एवं प्रकृति को, गुण सहित जो जान ले
बरताव कैसा भी करे वह जन्म फिर जग में न ले
कुछ आप ही में आप आत्मा देखते हैं ध्यान से
कुछ कर्म-योगी योग से, कुछ सांख्य-ज्ञानी ज्ञान से

सुन दूसरों से ही किया करते भजन अनजान हैं
तरते असंशय मृत्यु वे, श्रुति में लगे मतिमान् हैं
जानो चराचर जीव जो पैदा हुए संसार में
सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से विस्तार में
अविनाशि, नश्वर सर्वभूतों में रहे सम नित्य ही
इस भाँति ईश्वर को पुरुष जो देखता देखे वही

जो देखता समभाव से ईश्वर सभी में व्याप्त है
करता न अपनी घात है, करता परमपद प्राप्त है
करती प्रकृति सब कर्म, आत्मा है अकर्ता नित्य ही
इस भाँति से जो देखता है, देखता है जन वही
जब प्राणियों की भिन्नता जन एक में देखे सभी
विस्तार देखे एक से ही, ब्रह्म को पाता तभी

यह ईश अव्यय, निर्गुण और अनादि होने से सदा
करता न होता लिप्त है, रह देह में भी सर्वदा
नभ सर्वव्यापी सूक्ष्म होने से न जैसे लिप्त हो
सर्वत्र आत्मा देह में रहकर न वैसे लिप्त हो
ज्यों एक रवि सम्पूर्ण जग में तेज भरता है सदा
यों ही प्रकाशित क्षेत्र को क्षेत्रज्ञ करता है सदा
क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्र अन्तर, ज्ञान से समझें सही
समझें प्रकृति से छूटना, जो ब्रह्म को पाते वही

तेरहवाँ अध्याय समाप्त हुआ



Credits
Writer(s): Pandit Shri Dinanath Bhargava
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