Chaudahwa Adhyay

चौदहवाँ अध्याय

श्री भगवान् ने कहा
अतिश्रेष्ठ ज्ञानों में बताता ज्ञान मैं अब और भी
मुनि पा गये हैं सिद्धि जिसको जानकर जग में सभी
इस ज्ञान का आश्रय लिए जो रूप मेरा हो रहें
उत्पत्ति-काल न जन्म लें, लय-काल में न व्यथा सहें
इस प्रकृति अपनी योनि में, मैं गर्भ रखता हूँ सदा
उत्पन्न होते हैं उसीसे सर्व प्राणी सर्वदा

सब योनियों में मूर्तियों के जो अनेकों रूप हैं
मैं बीज-प्रद उनका पिता हूँ, प्रकृति योनि अनूप हैं
पैदा प्रकृति से सत्त्व, रज, तम त्रिगुण का विस्तार है
इस देह में ये जीव को लें बांध, जो अधिकार है
अविकार सतगुण है प्रकाशक, क्योंकि निर्मल आप है
यह बांध लेता जीव को सुख ज्ञान से निष्पाप है

जानो रजोगुण रागमय, उत्पन्न तृष्णा संग से
वह बांध लेता जीव को कौन्तेय, कर्म-प्रसंग से
अज्ञान से उत्पन्न तम सब जीव को मोहित करे
आलस्य, नींद, प्रमाद से यह जीव को बन्धित करे
सुख में सतोगुण, कर्म में देता रजोगुण संग है
ढ़क कर तमोगुण ज्ञान को, देता प्रमाद प्रसंग है

रज तम दबें तब सत्त्व गुण, तम सत्व दबते रज बढ़ए
रज सत्त्व दबते ही तमोगुण देहधारी पर चढ़ए
जब देह की सब इन्द्रियों में ज्ञान का हो चाँदना
तब जान लेना चाहिए तन में सतोगुण है घना
तृष्णा अशान्ति प्रवृत्ति होकर मन प्रलोभन में पड़ए
आरम्भ होते कर्म के अर्जुन, रजोगुण जब बढ़ए

कौन्तेय, मोह प्रमाद हो, जब हो न मन में चाँदना
उत्पन्न हो आलस्य जब, होता तमोगुण है घना
इस जीव में यदि सत्त्वगुण की वृद्धि मरते काल है
तो प्राप्त करता ज्ञानियों का शुद्ध लोक विशाल है
रज-वृद्धि में मर, देह कर्मासक्त पुरुषों में धरे
जड़ योनियों में जन्मता, यदि जन तमोगुण में मरे

फल पुण्य कर्मों का सदा शुभ श्रेष्ठ सात्त्विक ज्ञान है
फल दुख रजोगुण का, तमोगुण-फल सदा अज्ञान है
उत्पन्न सत से ज्ञान, रज से नित्य लोभ प्रधान है
है मोह और प्रमाद तमगुण से सदा अज्ञान है
सात्त्विक पुरुष स्वर्गादि में, नरलोक में राजस बसें
जो तामसी गुण में बसें, वे जन अधोगति में फँसें

कर्ता न कोई तज त्रिगुण, यह देखता द्रष्टा जभी
जाने गुणों से पार जब, पाता मुझे है जन तभी
जो देहधारी, देह-कारण पार ये गुण तीन हो
छुट जन्म मृत्यु जरादि दुख से, वह अमृत में लीन हो

अर्जुन ने कहा
लक्षण कहो उनके प्रभो, जन जो त्रिगुण से पार हैं
किस भाँति होते पार, क्या उनके कहो आचार हैं

श्री भगवान् ने कहा
पाकर प्रकाश, प्रवृत्ति, मोह, न पार्थ, इनसे द्वेष है
यदि हों नहीं वे प्राप्त, उनकी लालसा न विशेष है
रहता उदासीन-सा गुणों से, होए नहीं विचलित कहीं
सब त्रिगुण करते कार्य हैं, यह जान जो डिगता नहीं
है स्वस्थ, सुख-दुख सम जिसे, सम ढेल पत्थर स्वर्ण भी
जो धीर, निन्दास्तुति जिसे सम, तुल्य अप्रिय-प्रिय सभी

सम बन्धु वैरी हैं जिसे अपमान मान समान है
आरम्भ त्यागे जो सभी, वह गुणातीत महान है
जो शुद्ध निश्चल भक्ति से भजता मुझे है नित्य ही
तीनों गुणों से पार होकर ब्रह्म को पाता वही
अव्यय अमृत मैं और मैं ही ब्रह्मरूप महान हूँ
मैं ही सनातन धर्म और अपार मोद-निधान हूँ

चौदहवाँ अध्याय समाप्त हुआ



Credits
Writer(s): Pandit Shri Dinanath Bhargava
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